तलाश
पत्थर के महल में जाकर..
सिशे चुन लेने की खता की है..!!
जब इंसानों की बीच हमने..
इंसानियत तलाशने की खता की है..!!
कांटों के बीच फंसकर..
फूल को ढूंढने की जुर्रत की है..!!
हां इंसानों के भीड़ में हमने..
इंसानियत तलाशने की जुर्रत की है..!!
अस्कों के सैलाब में तैरकर..
मुस्कान की मुकाम की आस की है..!!
जब इंसानों के बस्ती में हमने..
इंसानियत को छिपके तलाश की है..!!
जमीन से चांद को छूं लेने की..
कभी उम्दा कोशिश सी की है..!!
हां यह हुआ तब जब हमने..
इंसान में इसनियत को तलाश दी है..!!
मुठ्ठी भर इस छोटी जिंदगी से..
एक उम्र चुराने सा गुनाह की है..!!
जब इंसानों की दुनिया में हमने..
इंसानियत की खोखली तलाश की है..!!
जानवर परिंदे में कभी कभी..
इंसानियत की झलक दिख जाती है..!!
पर इंसानों के दिलों में कहीं भी..
इंसानियत हमें नहीं दिख पाती है..!!
जाने क्यों दरिंदा मिल जाता है..??
जब जब इंसान थोड़ा करीब आ जाता है..!!
क्या गुनाह थी इंसानियत की हमारी तलाश वो..??
जो इंसानों के खाल में कहीं गुम हो चुका होता है..!!